Thursday 26 February 2009

"स्माईल पिंकी" एक प्रेरणा


"आज बहुत खुशी भईबे कईल, लेकिन हमके दिन अधिक खुशी भईल रहल,जब ओकरे ओठ के सी के डाक्टर साहब ओके ठीक कर दिहले रहले। हमरे बिटिया के गाँव के लोग होंठकटवा कहें और रोअत भयल, घरे आवे तो कई बार हमरा के भी आंसू निकल आवे। लेकिन जोन दिन ओकरा आपरेशन भयल हमरे बिटिया के साथ हमरे खुशी के भी ठिकाना रहल"

ये चंद लाइन पिंकी की माँ ने ऑस्कर अवार्ड की घोषणा के बाद कहे थे...जी हाँ ..वही पिंकी जिसे कल तक लोंग होंठकटवा कह कर चिढाते थे। लेकिन गाँव की इस बिटिया ने आज अपने गाँव के साथ- साथ पुरे देश को मुस्कराने का मौका दिया है। लॉस एंजिलिस के 81 वें ऑस्कर अवार्ड समारोह में "स्लमडॉग मिलिनयर " की सफलता और तीन भारतियों को मिले ऑस्कर अवार्ड से , सारे देश के साथ- साथ मुझे भी खुशी हुई। लेकिन उस से भी ज्यादा खुशी हमें अपने मज़दूर बाप के साथ रेड कारपेट पर खड़ी मुस्कराती हुई पिंकी को देख कर हुई। और मैं तो कहता हूँ मेरे साथ - साथ सारे देश को इस बिटिया पर नाज़ होना चाहिए। पिंकी उस राजेन्द्र सोनकर की बेटी है जो कल तक सिर्फ़ 40 किलोमीटर दूर बनारस का रास्ता तक ठीक से नही देखा था।
लेकिन आज अपनी बिटिया की बदौलत वह अमेरिका के ऑस्कर जैसे समारोह में शरीक हुआ। कल तक जो माँ अपनी बेटी की मौत चाहती थी,आज वही माँ -पलक पावड़े बिछाए अपनी बेटी का अमेरिका से लौटना का इनतेजार कर रही होगी। छह भाई बहनों में 8 वर्षीसबसे छोटी पिंकी ने जैसे गाँव का कायापलट कर दिया हो। कल जब टीवी पर न्यूज़ देख रहा था, तो सचमुच अध्भुत नज़ारा था। रामपुर डबही गाँव के लोग खुशी से ऐसे नाच,झूम और गले मिल रहे थे जैसे मानो ऑस्कर पुरे गाँव को मिल गया हो। भले ही इन भोले - भले गाँव वालों को ऑस्कर का मतलब भी पता हो। लेकिन इतना तो वो समझ ही रहे थे की उनके गाँव की इस बिटिया ने सारे गाँव को दुनिया के नक्शे पर उजागर कर दिया है। पिंकी की सफलता के लिए गाँव में मन्नतें रखी जा रही थी। पहाडियों के बिच स्थित इस गाँव में कल तक शायद ही कभी- कोई नेता या अफसर पहले आया हो। लेकिन आज जब पिंकी पर बनी डॉकमेंट्री चर्चित हुई तो, आज सभी लोग बारी -बारी से आने लगे। अब तो पिंकी की वजह से गावं की कायापलट की भी उम्मीद की जा रही है।
धन्य हो उस सोशल र्कर का जिसने पिंकी का ऑपरेशन कराया, धन्य हो अमेरिकी फ़िल्म निर्माता, जिसने ऐसे सब्जेक्ट पर डॉकमेंट्री बनाई। आज इनलोगों की अथक प्रयास के वजह से ही पिंकी के साथ-साथ पुरा गाँव और देश मुस्करा रहा है। इन सब के बिना ये सब मुश्किल था। शायद अब पिंकी की सफलता से वे सभी माँ- बाप भी सबक ले सकेंगे, जिनके बच्चे मानशिक या शारीरिक रूप से विकलांग है।बेटे और बेटियों के बिच की गहरी खाई को पाट सकेंगे। वैसे जाने आज भी हमारे देश में कितनी पिंकी पैदा होने से पहले ही मार दी जाती है। पिंकी तो हर गाँव में मौजूद होती है,बस जरुरत है उन्हें परखने और तरासने की। उम्मीद करता हूँ हम भारतीय भी अपनी मानशिकता बदलकर एक नए भारत की नीव रख सकेंगे। लेकीन इसके लिए हम सब को मिलकर एकसाथ प्रयास करना होगा...तो आईये आज सपथ लें एक नए भारत के निर्माण की....तब तक यही कहेंगे "स्माईल इंडिया विथ स्माईल" पिंकी......

Wednesday 25 February 2009

तुझ सा न जग में दूजा कोई


गोद में जब मैं तेरे आया
ऊँगली पकड़ तुने चलना सिखाया
था मैं जब नन्हा सा
तितली पकड़ता तन्हा सा
कान पकड़ तु मुझे डराती
आँख में आंसू देख
ख़ुद डर जाती
तबियत जब भी मेरी बिगड़ती
रातभर तु जाग न सोती
काम से जब तु वापस आती
साथ हमेशा रसगुल्ले लाती
होस्टल में जब तुने रखाया
पहली बार तुने बड़ा सताया
छुटा जब तेरा साथ
तन्हा गुजरा सारी रात
हर मंगलवार जब मिलने आती
साथ बना कुछ जरुर लाती
प्यार का ऐसा नाता रिश्ता
सच्ची मन को बड़ा ही भाता
तेरे मार का न कोई असर
हर बार रहूँ बेखबर
पापा ने जब भी की पिटाई
हर बार तु बीच में आयी
मम्मी जब मैं हुआ बड़ा
आज भी तेरे गोद में पड़ा हुआ
उठने की जब भी कोशिश करता
थककर तेरे गोद में गिरता
सोचता हूँ सपना पुरा करूँ तेरा
साथ न किस्मत अभी मेरा
वर्षो से कर रही तू मेरा इंतेज़ार
सपना पुरा कर आऊंगा आगली बार.....


Thursday 12 February 2009

जब ऐसा पहली बार हुआ


बात ऊन दिनों की है, जब मैं अपनी सिस्टर के साथ पटना में रहता था। शाम के करीब ६-६.३० का वक्त रहा होगा। मैं अपने फ्लैट से निकल कर अपने कज़न के यहाँ जा रहा था। शाम का वक्त होने के कारण मुहल्ले के लोग अपने - अपने गैलरी में कुर्सी लगाकर आराम की मुद्रा में बैठे हुए थे। हमारे आगे के फ्लैट में रहने वाली पड़ोस की लड़की भी अपने फ्लैट के गेट के बगल में चेयर लगाकर, रेलिंग से पैर लगाकर बैठी हुई थी। मेरे फ्लैट का रास्ता उसके फ्लैट से होकर ही गुजरता था। मैं उसके पास जाकर पैर हटाने की गुजारिश किया। वो मेरी बातों को अनसुना करते हुए,अचानक मेरी हाथों को पकड़ एकटक मेरे चेहरे को देखने लगी। अचानक हुई इस घटना से मै भौचक रह गया और मेरे शरीर के सारे रोएँ खड़े हो गए। सच बताऊँ तो उस वक्त मै बेहद डर भी गया था। डर भी क्यूँ न हो बगल में ही उसके फ्लैट का मेन दरवाज़ा था जहाँ की उसका भरा पुरा परिवार रहता था। साथ ही आस पास के बिल्डिंगों में भी लोग बैठे थे। बहरहाल मैंने किसी तरह से हाथ खीचकर कर छुड़ाया जो पुरे हथेली से होते हुए एक ऊँगली पर आ कर छुटा। अब ना मै कुछ बोल सका और ना वो, मैं सीधा अपने कजन के यहाँ चला गया। अब तो इस घटना के बाद जैसे मेरी बोलती हीं बंद हो गयी। हमेशा बोलने की आदत और उस दिन अचानक चुप बैठा देख मेरे कजन ने मुझसे पूछा , क्या बात है आज आप चुप क्यूँ हैं ? पहले तो मैंने कुछ नहीं कह के बात को टालने की कोशिश की, लेकिन फ़िर प्रेस करने पर मैंने सब कुछ सच- सच बता दिया। अब पुरी बात सुनने के बाद वो पहले तो मुस्कुराए, फ़िर उन्होंने कुछ टिप्स दिए। वो अलग बात है, की इसका कोई खास असर नही हुआ।

इधर वो अब अपनी छोटी बहन को ले जाने के बहाने हमारे फ्लैट तक आने लगी थी। उसकी छोटी बहन जो अक्सर मेरे यहाँ आ जाया करती थी, जो की मेरी भांजी के हमउम्र थी। इसी तरह उसकी दोस्ती अब मेरी सिस्टर से भी हो गयी थी। कई बार जब वो मेरे यहाँ से आ रही होती थी तो,कभी कभी मेरा सामना उससे रेलिंग पर हो जाता था। इस दौरान वो कभी मेरे चेहरे से तो कभी पेट से छेड़ छाड़ कर देती थी। ये मुझे पसंद नही था लेकिन जगह नही होने के कारण मैं भी खुल के बोल नही पा रहा था। उस वक्त मेरी भी उमर करीब १६-१७ रही होगी। इस वजह से मैं भी ऐसे हालत को समझ नही पा रहा था। थोड़े दिनों तक ऐसा ही चलता रहा। एक दिन तो हद हो गयी जब मैं खाना बना रहा था और वो मेरे किचेन में आ गयी। उस समय मेरी सिस्टर फैमली के साथ शादी में गयी हुयी थी। किचेन में आकर वो मेरे हाथ से छोलनी लेकर बोलने लगी आज मैं खाना बनाउंगी, और शुरू भी हो गयी। मुझे इस वक्त सबसे ज्यादा अपनी बुद्दी मकानमालकिन के आने का डर लग रहा था। जो अचानक कही भी आ धमकती थी। अब मुझे गुस्सा आ रहा था और किसी के देख लेने का डर भी हो रहा था। पर वो सुनने को तैयार नही हो रही थी। मैंने उसे बोला तुम ख़ुद तो बदनाम होगी ही और मुझे पुरे परिवार के साथ बदनाम करोगे। पता नही कभी वो मुझे अच्छी भी क्यूँ नही लगी। तभी मैंने कहा अभी १० मिनट में भइया (कजन) आयेंगे खाना खाने के लिए, अगर तुम्हे देख लिया तो डांट पड़ेगी। तब जाकर वो जल्दी से भागने लगी लेकिन वो जाते जाते मेरे शरीर पर एक हाथ रख दिया, मैंने भी उसे गुस्से में एक हाथ दिया। जब हमारे कज़न आए तो मैंने पूछा सब्जी कैसी बनी है? उन्होंने बहुत अच्छा में जवाब दिया, ये सुन मुझे हंसी आ गयी। मैंने उनसे कहा आज मैंने नही किसी और ने बनाया है। फ़िर सारी बातें बता दिया और दोनों हंस पड़े....अब उसका इसी शहर में अपना मकान बन गया था, जिसकी गृह प्रवेश की तयारी चल रही थी। गृह प्रवेश के बाद वो पुरे परिवार के साथ अपने मकान में शिफ्ट हो गयी। मैंने कहा थैंक्स गौड....बच गया ...

Sunday 8 February 2009

वो दो दिन और चार रूपये

अभी हाल में पहली बार ऐसा हुआ जब जेब में मात्र चार रूपये थे और दो दिन गुजरा (शायद मेरे याद में पहली बार )। हद तो तब हो गयी, जब ऐसी स्थिति में मेरे यहाँ एक मेहमान भी आ धमके । हालांकि उस दिन १५ रूपये थे । उस दिन १५ रूपये में बड़ी होशियारी दिखाते हुए ११ रूपये का दूध जैसा जरुरी सामन लाया और डिनर का इन्तेजाम किया । अब मैं सिर्फ़ ४ रूपये के साथ था, वो भी दिल्ली जैसे शहर में । मेरे फ्रिज में पहले से हीं कुछ अंडे ,आलू, प्याज़ जैसे जरुरी सामन पड़े हुए थे । इसी के मद्देनज़र मैंने रात में डिनर के लिए अंडा भुजिया और दाल के साथ रोटी बनाया । खैर अब मैं मेहमान के साथ डिनर तो कर लिया लेकिन अब मुझे सुबह की चिंता थी। इसे ध्यान में रखते हुए मैंने रात में हीं छोले भिगो दिए। अगले दिन सुबह मैं अपने मेहमान के साथ चाय और बिस्किट का नास्ता लिया। जोकि अक्सरमेरे पास मौजूद रहता है। अब लंच के लिए छोले चावल बनाकर बड़े हीं गर्मजोशी के साथ उनके साथ लंच किया। इस तरह मैं आपने मेहमान को अब विदा कर चुका था और मन ही मन आपनी चालाकी पर इतरा रहा था।

अब आप सोच रहे होंगे की ऐसी मुश्किल घड़ी में मैंने किसी से मदद क्यूँ नहीं लिया। हुआ यूँ कि २०-२१ तारीख तक मेरे पास करीब १४०० रूपये थे। लेकिन आचानक मेरे गैस ख़त्म हो गए , पेपर वाले और केबल वाले को बिल दिया और कुछ पैसे मैंने एक मित्र को जरुरत पड़ने पर दे दिया। नतीजा ये हुआ कि मैं ख़ुद कंगाल हो गया। अब मैंने अपने एक क्लासमेट को फ़ोन किया कि वो मेरे लिए कुछ पैसे लेते आए। उसने कल लाने कि बात कही । मैंने उसका चयन इस लिए किया था,उसके पास पहले से ही मेरे कुछ पैसे बाकी थे। लेकिन वह न तो अगले दिन मुझे फ़ोन करना जरुरी समझा ना ही मेरा फ़ोन पिक करना। अब ये बात मुझे बुरा लग गया और पता नहीं क्यूँ किसी और को कहना मुझे आच्छा नहीं लग रहा था। चुकी महिना का आखरी दिन चल रहा था और अमूमन महीने के आखरी दिन मेरे घर से ख़ुद ही पैसे आ जातें है तो एक दो दिन के लिए घर पर भी कहना उचित नहीं समझा। खैर लेकिन अब भी मैं वही चार रूपये के साथ था, सो मुझे अचानक पुराने रद्दी अख़बार का ध्यान आया और मैंने उसे बेचने का फ़ैसला किया । सच में उस दिन रद्दी से मिले १०४ रूपये मेरे लिए बहुत बड़ा अमौंट था। खैर अब मेरे अकाउंट में अब पैसे आ गए हैं और नयी चुनौतियों के लिए तैयार हूँ । फ़िर भी उन्हें कहूँगा शुक्रिया दोस्त आपने मुझे सिमित संसाधन और पैसे में जीना सिखा दिया । वैसे यह भी मेरी लाइफ का आच्छा अनुभव था।

Sunday 1 February 2009

दीपक की लौ में


दीपक की लौ में
मंजिल तलाश रहा हूँ मैं
अंधेरे को चीरने की कोशिश
करता हीं जा रहा हूँ मैं
जब आतीं है आंधियां बमुश्किल से
सम्भाल रहा हू मैं
दीपक की लौ में
मंजिल तलाश रहा हूँ मैं
कभी तो होगी रौशनी
इसी उमीद में
आगे बढ़ता हीं जा रहा हूँ मैं
दोस्तों की खुशी में
अपनी खुशी तलाश रहा हूँ मैं
दीपक की लौ में
मंजिल तलाश रहा हूँ मैं
अंधेरे में जब लड़खड़ातें हैं कदम
बमुश्किल सम्भाल रहा हूँ मैं
घुटने हो गए हैं घायल फ़िर भी
आगे बढ़ता हीं जा रहा हूँ मैं
कोई तो होगा जो इन घायल
घुटनों को देगा सहारा
इस उम्मीद में बढ़ता ही जा रहा हूँ मैं
दीपक की की लौ में
मंजिल तलाश रहा हूँ मैं......