Monday 23 March 2009

हमने कभी सोचा न था



जिन्दगी की राह पर जब हुई थी तुम से मुलाकात
सताएगी जब सारी दुनिया तुम दोगी मेरा साथ
हमने कभी सोचा था......
जालिम ये दुनिया जब ढाएगी सितम
मुझपर लगाओगे प्यार के मरहम
देखते ही देखते हालात यूँ बदल जायेंगे
राहों में फूल ही फूल खिल जायेंगे
हमने कभी सोचा था.........
आँखों के आंसू यूँ मोती बनकर बिखरने लगेंगे
दिल के ख्वाब यूँ हकीकत बनकर बरसने लगेंगे
पत्थर समझे मुझे दुनिया वाले मैं मोम हूँ,
तेरे सिवा किसी ने छूकर नहीं देखा
लोग तो फूलों की सेज पर चलतें हैं
तुम काँटों को गले लगाओगे
हमने कभी सोचा था...........
जब दुनिया हमे ठुकराएगी
तुम मुझे अपनाओगे
बुद्धू समझेगी जब सारा जमाना
बनुगा मैं तेरा दीवाना
प्यार के नशे में झूमता हुआ
गाऊंगा मैं तेरा तराना
हमने कभी सोचा था....
अब खुदा से है एक ही गुजारिश
ढा लेना चाहे मुझपे जितना सितम
उसके क़दमों में देना कोई जखम
खुदा तेरी ही रहमो करम पे वो इठलायेगी
प्यार के दो मीठे बोल गुनगुनायेगी
हमने कभी सोचा था........

Thursday 12 March 2009

कुछ ऐसी रही होली हमारी


लगातार यह चौथा साल है जब मैंने अपने परिवार दूर होली बिताया है । लगातार यह चौथा साल है जब मैंने ना ही अपने माँ के चरणों में गुलाल रखे, ना ही अपने पिता को ललाट पर गुलाल लगा आशीर्वाद लिया है। लगातार यह चौथा साल रहा जब मुझे होली पर अपने माँ के हाथों का बना पुआ से महरूम रहना पड़ा । सच बताऊँ तो होली के दिन घर की बहुत याद आई और पुरे परिवार को मिस किया।
मैं मूलतः बिहार से हूँ जहाँ की इन रीती -रिवाजों स चलन है। वहां कुछ हो या ना हो, करीब हर अमीर-गरीब के घर में पुआ- पकवान बनता है। शाम के वक्त पुरूष-महिला अपने-अपने ग्रुप के साथ एक दुसरे के घर जातें हैं। एक दुसरे के साथ रंग गुलाल खेलने के बाद एक साथ बैठकर पुआ-पकवान का आनंद लेतें हैं, एक दुसरे से गले मिल बधाई देतें हैं।
भारत जैसे धर्म प्रधान और त्योहारों वाले देश में होली एक मात्र त्योहार है, जो किसी देवी देवता का सहारा लेकर नहीं पहुँचता। यह तो लोक पर्व है, मनुष्यता का पर्व और समाज का पर्व है। इसमें आप समाज को आप सर्वोपरि मानने की घोषणा करतें है। होली की तुलना किसी दुसरे पर्व से नहीं किया जा सकता। यह उन लोगों से पूछ सकतें है जो, जो होली से नफरत करतें हैं या हुडदंग में शामिल होतें हैं। या वो रंग खेलने निकाल पडतें हैं, या घर में छुप कर बैठ जाते हैं। अन्य त्योहारों में ऐसा नहीं होता या इसकी जरुरत नहीं पड़ती। ऐसे प्रेम और नफरत का रिश्ता एक साथ सिर्फ़ होली में ही दीखता है। होली तो भारत के सांस्कृतिक मानस में छुपा है। उस मानस में क्या है ? इसे हुल्लड़ और रंग्पशी रिवाजों से समझा जा सकता है। जब हम होली के दिन सज-सवर के बैठे होतें हैं, दोस्तों और रिश्तेदारों का एक हुजूम आता है और आप को बदशक्ल बना देता है। काले बाल में लाल गुलाल,गोरे चेहरे पर हरे रंग,सफ़ेद कुरते पर कीचड़-मिट्टी से पोत दिया जाता है। बदले में आप हँसते है, नाराज नहीं होते और उन्हें बधाई देतें हैं। बदकिस्मती से इस साल मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ। ऐसा इस लिए होता है क्यूंकि हम अच्छे या बुरे रूप में स्वीकार करने के समाज के अधिकार को स्वीकार करते है। होली दरअसल हमें यही समझाती है कि जिंदगी के कई रंग ऐसे हैं, जिनमे डूबने के बाद हम सब एक जैसे होते हैं। हमारी वृतियों में,खुशियों में, मन के भीतर बैठे किसी बच्चे या युवा के नैसर्गिक उल्लास में कोई फर्क नहीं होता।
जब हम बदशक्ल बनाये जाने के डर से अपने ड्राइंग रूम को गन्दा किए जाने से नफरत करते हैं,तो असल में हम उस झूठे अंहकार से घिरे होते हैं। किसी ने हमे रंग लगा दिया,कपड़े गिले कर दिए,भागने को मजबूर कर दिया तो हमारी ठसक, हमारी वह नकली प्रतिष्ठा इज्जत कि कलई खोलती है। लेकिन जरा उन से कोई पूछे तो जब अपने लाडले के गाल पर एक लाल सा टीका कर भला क्यूँ खुश होते हैं ? या किसी भूत सा चेहरा लिए झूम-झूम कर होली गते लोगों को देखकर हँसी क्यूँ आती है ? जब आपकी प्रेमिका या पत्नी आपके ऊपर चुटकी भर गुलाल फेंक कर भागती है तब,आप भी उन्हें रंग या गुलाल लेकर उनके पीछे क्यूँ भागते हैं ? उन्हें रंग के क्यूँ निहाल हो जाते हैं। खैर मैं इन चीजों से इस साल दूर रहा और शायद असल मुद्दे से भटक गया......
होली के दिन हमारे ही मुहल्ले में रहने वाली एक दोस्त ने मुझे फ़ोन किया। मैंने उससे करीब दो घंटे में आने वादा किया। कुछ बानाने खाने के बाद अपने वादे के मुताबिक छत से पानी फेकने वालों से बचते बचाते उसके यहाँ पहुँच गया। हमलोग बिल्कुल साफ़ सुथरे दिख रहे थे होली का कोई रंग नहीं चढ़ा था। अब हमदोनों ने एक दुसरे को गुलाल लगाकर बधाई दी,और क्रिकेट मैच देखने बैठ गया। थोड़ी देर बाद न जाने उसके मन में क्या आया कि उसे बहार की होली देखने की ईक्षा जताई। मैंने भी मना नहीं किया और दोनों निकल पड़े। गली में निकलते ही रास्ते में मार पिट हो रही थी , नतीजा वहां से गुजरते वक्त जाने अंजाने मुझे भी एक हाथ लग गया। उस वक्त वहां कोई कुछ सुनने कि भी स्थिति में नहीं था। इसलिए हमदोनो आगे निकलते रहने में ही अपनी भलाई समझी। आगे गली में कहीं तो एकदम सन्नाटा था काही पर ढेर सारे लड़के शोर- शराबा कर रहे रहे थे। महिलाओं का तो नमो निशान नहीं था। कुछ लड़के तो चड्डी में ऐसे घूम रहे थे जैसे आज उनके सामने सूमो भी नहीं टिक सकता। पानी से पुरी गली गीली होने के कारण हमलोग आराम से बचते हुए चल रहे थे। वहां से गुजते वक्त कुछ लफंगों के टोन भी सहने पड़े लेकिन हमलोग आगे बढते रहने में ही भलाई समझा। गली से गुजरते वक्त एक जगह छत से हमलोगों पर पानी डाला गया। पानी से गीला होने पर उसके मुंह से "ओ शीट"..कि आवाज़ निकल गई। अब उन लड़को ने "इक्को माईक " कि तरह न जाने कितने बार आवाज़ निकाले। अब मैं करीब अपने घर के गली के पास पहुँचने वाला था। तभी एक लड़का दौड़ता हुआ आया और उसके ऊपर गुलाल डालते हुए " हैप्पी होली" कहा। गुस्से में मेरी दोस्त ने पुछा, आप मुझे जानतें है ? पलटकर उसने अंग्रेजी में कहा " व्हाट हैप्पेन, टुडे इज होली " मैंने बीच में आते हुए, उसे अपने साथ ले लिया। वह लड़का ऐसे हंसता हुआ वापस गया जैसे आज उसे कितनी बड़ी सफलता मिली हो। हमलोग अपनी बेवकूफी पर तो पछता रहे थे, लेकिन कोई चारा नहीं था। अब मैं अपने कमरे पर पहुँचने वाला था,और उसके यहाँ वापस जाने स्थिति में भी नहीं था। इस लिए मैंने माहौल शांत होने तक यहाँ ही रुकने को कहा। थोड़ी देर बाद हमलोगों के दो और कॉमन फ्रेंड आ गए। हम चारो ने आपस में थोड़ी देर मस्ती की। थोड़ी ही देर बाद मेरे जानकर दो लड़के नशे धुत आ धमके, और एक ने फोटो खीचा रही फ्रेंड के पास जाकर, साथ फोटो खिचाने की कोशिश करने लगा। मैंने उसे करीब खीचते हुए कमरे से बहार निकलकर छत पर ले गया। वहां पर कुछ समझाने की नाकाम कोशिश के बाद सीधा बहार का रास्ता दिखा दिया। कुल मिलकर रंग में भंग अभी भी जारी थी। अचानक हुई इस घटना से वह इतनी आहात हुई की वो रोने लगी। किसी तरह से समझा बुझा कर हमलोगों ने कार्ड खेलना शुरू कर दिया,ताकि इस मानशिक परेशानी से निकला जा सके। अब बहार में करीब शाम हो चुकी थी और माहौल भी शांत पड़ चुका था। सभीलोग अब अपने अपने घर चले गए।
मैं कमरे में अब अकेले रह गया था। इसलिए अपनी बोरियत दूर करने और होली के रंग में रंगने का एक आईडिया आया। मैंने बैठकर पेंटिंग बनाना शुरू कर दिया और देखते ही देखे करीब तीन-चार घंटों में मैंने एक खुबसूरत सी पेंटिंग बना डाली। जिसमें इन्सान और जानवर के बीच प्यार प्रतीत होता है। मुझे नही पता मैंने अपनी पेंटिंग में इन्सान और जानवर को ही क्यूँ दिखाया। बस दिल ने कहा और शुरू हो गया। इस तरह मैंने भी रंग तो खेला लेकिन कैनवस के साथ...... कुल मिलकर यह होली भी कभी न भूलने वाली कुछ खट्टी-मिठ्ठी यादों के साथ विदा हो गई......

Wednesday 11 March 2009

मैं भूल जाती हूँ


मैं भूल जाती हूँ!

जब आप मेरी दोस्त बनकर मुझसे ढेर सारी बातें करती हो

मैं भूल जाती हूँ की आपने अकेले कई पल बिताये होंगे

जब मुझे अपनी बातों से रात रात भर हसाती हो’

मैं भूल जाती हूँ कई सपनो को जागने से पहले सुलाए होंगे

जब कुछ समझ नही आता और में आकर गोद में छुप जाती हूँ

मैं भूल जाती हूँ की आपने दुनिया को समझने में कई साल लगाये होंगे

जब दूर जाती हूँ और आप मुस्कुरा कर हाथ हिलाती हो

मैं भूल जाती हूँ की इन हाथों से आपने अपने आँसू मिटाए होंगे

जब साथ में आपके गाना गाती हूँ और कुछ पलों को सजाती हूँ

मैं भूल जाती हूँ की आपने कई बरस बाद वो गीत गुनगुनाये होंगे

जब आपको दर्द पहुचाने वाले लोगो को आप समझने की कोशिश करती हो

मैं भूल जाती हूँ कि इन लोगो ने आपको समझने के लिए कुछ पल भी नही बिताये होंगे

जब मैं ख़ुद के लिए दूसरों से लड़ती हूँ और हार जाती हूँ

मैं भूल जाती हूँ की आपने ख़ुद से लड़ते हुए अपने कदम बढ़ाए होंगे

जब मैं ख़ुद को आगे बढ़ते हुए देख भगवान् को धन्यवाद देती हूँ

मैं भूल जाती हूँ की आपने क़दमों को पीछे करके अपने निशाँ मिटाए होंगे

मैं कुछ भी लौटा नही सकती

बीते पलों को सजा नही सकती

पर एक मम्मी चाहती हूँ जो आज सब कुछ भूलकर ज़िन्दगी को अपनाए

अपनी हँसी में छुपी भरी आवाज़ को हलके से गुनगुनाकर भूल जाए

मैं जानती हूँ आप नही भूलती क्यूंकि याद रखने के लिए पल नही मिलते

क्यूंकि बंज़र सी ज़मीन में पानी डालने पर वह फूल नही खिलते

पर साथ मिलकर हम नया बाग़ सजायेंगे और हम याद रखे ज़िन्दगी में कुछ ऐसे पल बिताएंगे.


अनामिका जोशी

(मेरी मम्मी को समर्पित )






Monday 9 March 2009

डॉक्टर मिशन पर "पिंकी"


( हेल्लो दोस्तों....पिछले दिनों मैंने "स्माईल पिंकी " से जुड़ी पिंकी के ऊपर अपनी टूटी -फूटी भाषा में मैंने कुछ लिखने की कोशिश की थीलेकिन जब पिंकी वापस इंडिया लौटी तो मेरे दिमाग में फ़िर से कुछ लिखने का ख्याल आयामैंने पेपर पर तो लिख लिया था, लेकिन व्यस्त होने की वजह से ब्लॉग पर नहीं लिख पाया थाहालाँकि ख़बर पुरानी हो गयी है लेकिन दिल नहीं मानाइसलिए आज फ़िर से कुछ लिखने की कोशिश कर रहा हूँउम्मीद करता हूँ आप पसंद करेंगे....)

पिछली बार जब हमने पिंकी के बारे में लिखा था तो पिंकी को लेकर हमने देश के लोगों में कुछ बदलाब के सपने देखे थे। अब ये सपना सच होता दिखायी दे रहा है। और इसकी शुरुआत ख़ुद पिंकी के पिता ने की है। अवार्ड जितने के बाद शॉर्ट डॉक्मेंट्री फ़िल्म "स्माईल पिंकी" की लिटिल स्टार पिंकी सोवकर भी जब अमेरिका से लौटी तो, जोरदार स्वागत हुआ। अमेरिका से लौटने के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने भी पिंकी को आमंत्रित किया था।प्रधानमंत्री की पत्नी गुरशरण कौर ने पिंकी को ढेरों गिफ्ट्स देकर पिंकी की खूब आवाभगत की।
पिंकी के पिता राजेंद्र सोनकर ने एक बड़ी दिलचस्प बात बताई की-जिस वक्त फ़िल्म को ऑस्कर अवार्ड का ऐलान हुआ, तब पिंकी को नींद आ चुकी थी। उठते ही उसने सबसे पहले पूछा-हम जीत गईली, बाऊ ? तब उनहोंने 'हां' में जवाब दिया और उसके चेहरे पर मुस्कान तैर गयी। पिंकी के पिता ने कहा की अब उनकी सोच बदल गयी है, की लड़कियां माँ-बाप पर बोझ होती है। वह कहतें हैं की पिंकी की वजह से ही आज मैं अमेरिका में इतने बड़े-बड़े लोगों से मिल सका। अब मैं पिंकी को डॉक्टर बनाने का सपना हर हाल में पुरा करूँगा। वह मुझ से कहती है की मैं डॉक्टर बनकर क्लेफ्ट लिप बच्चों का इलाज करना चाहती हूँ। मैं उसकी यह चाहत पुरी करूँगा। इस सपने को हकीकत में बदलने के लिए पहले ही इंदौर के एक डॉक्टर दम्पति ने भी साथ देने की घोषणा कर चुके है। अब मुझे भी पिंकी के इस सपने को हकीकत में बदलने का इन्तेजार रहेगा। ताकि वो अपनी तरह के उन तमाम बच्चों के एक नयी जिन्दगी दे सके, जो जलालत भरी जिन्दगी जी रहे है। इसके लिए हमारी तरफ़ से पिंकी को ढेर सारी शुभकामनाएं....और अब उम्मीद करता हूँ पिंकी के पिता की तरह उन तमाम लोगों की सोच बदल गयी होगी, जो अब तक आपनी बेटियों को कमजोर या ख़ुद पर बोझ समझते थे...)