Wednesday 22 April 2009

प्रेम का भिखारी


(मैं प्रेम का भिखारी, इस विश्व भंडार में ह्रदय के समर्पण खोज रहा था...परन्तु समुद्र मंथन में हलाहल विष का ही प्रथम उद्दभव हुआ..अमृत संधान नहीं हुआ...)

पड़ जाता है जब चस्का
मोहक प्रेम सुधा पिने का,
सारा स्वाद बदल जाता है
दुनियां में जीने का....

किसी को नशा होता है
जहाँ में ख़ुशी का
हमें तो साथ मिला
गमे हाल जिन्दगी का....

कोई पी रहा है
लहू आदमी का
हर दिल में मस्ती रचाई है
सब कुछ ख़त्म हो चूका
न जाने फिर फिर भी क्यूँ
आज भी आसरा है उन्हीं का....

वो आँखों में हमेशा रही
लेकिन कभी हाल न लिया
मेरे दिल का
कश्ती की मुसाफिर थी वो
कभी देखा न समंदर मेरे अन्दर का...

मैं समझा,
दो लफ्जों की प्रेम कहानी
उन्हें तो चाहिए था बस,
दो पल की जिंदगानी
न मालूम किस जुर्म का
सजा दिया उसने
जख्म दे गयी वो
पुरे जिन्दगी का....


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